चाँद कि रौशनी भी इनहिसार है आफताब पर
फिर इन्सान क्यों खुद को खुदा से वाबस्ता समझता है
समुन्दर कि लेहरे भी गिरतीं है जमीँ पर
फिर क्यूँ इन्सान गुरूर मे जीता रहता है !!
गर अश्क बादलोँ से न टपके होते जमीँ पर
तो इस बंजर ज़मीं को क्यों कोइ भला अपनी माँ कहता
गर रेगिस्तान मे न होते पानी के सोते
तो सोचो क्या इन्सान वहां जी रहा होता
यूँ तो हज़ार मुद्दे है फ़िक़्र करने को
“अहद” तुझे सरोकार तो बस अपने जीने से है !!!
अनस तनवीर “अहद
फिर इन्सान क्यों खुद को खुदा से वाबस्ता समझता है
समुन्दर कि लेहरे भी गिरतीं है जमीँ पर
फिर क्यूँ इन्सान गुरूर मे जीता रहता है !!
गर अश्क बादलोँ से न टपके होते जमीँ पर
तो इस बंजर ज़मीं को क्यों कोइ भला अपनी माँ कहता
गर रेगिस्तान मे न होते पानी के सोते
तो सोचो क्या इन्सान वहां जी रहा होता
यूँ तो हज़ार मुद्दे है फ़िक़्र करने को
“अहद” तुझे सरोकार तो बस अपने जीने से है !!!
अनस तनवीर “अहद